प्रकृति ने रॅंग दीं
तितली सारी।
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तितली व्यस्त
बदल नहीं पाई
होली के वस्त्र।
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माँगती अब
ये जहरीली हवा
खुद को दवा।
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शिव हैं वृक्ष
प्रदूषण का विष
पीते हैं नित्य।
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कैसे ये फूल
गले ही पड़ गए
भद्र जनों के।
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भूकम्प आया
देखता रहा व्योम
प्राणों का होम।
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धरती हिले
अकेले ही मगर
दिल लाखों में।
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बहिन-भाई
भूकम्प औ सुनामी
दोनों कसाई।
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बूँद ही नहीं
मानव भी बनता
गुणों से मोती।
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भले व चंगे
पशु-पक्षी सहिष्णु
कफ्र्यू न दंगे।
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बलवान था
शेर नहीं खा पाया
चिन्ता ने खाया।
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निशा है रोती
पत्तों पर बिखेरे
दु:ख के मोती।
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सूखती रहीं
फूलों के बिछोह में
डालियाँ वहीं।
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विधवा हुई
फूल जैसी जिन्दगी
पहाड़ हुई।
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सृष्टि की चूक
प्राणियों को दे गई
निकम्मी भूख।
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काँटों के बीच
फूलों की तरह ही
मुस्काना सीख।
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धुआँ विषैला
रोज करे नभ का
आंचल मैला।
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भागा अँधेरा
दीपक ने उखाड़ा
तम का डेरा।
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हो गई हद
कानून से ऊपर
उनका कद।
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-सन्तोष कुमार सिंह