गुरुवार, मार्च 23, 2023

संतोष कुमार सिंह

बुझने लगे
ईर्ष्या भरी हवा से
आस्था के दीप।
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कोई गरीब
जब सिर उठाता
भूकम्प आता।
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सो गया आप
पेट भर कुत्ते का
भूखा था बाप।
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थाने में पीटा
था कसूर इतना
बेकसूर था।
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साड़ी को खींचा
सभी चुप हो गए
भीष्म थे सब।
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आया बसंत
बिहँस उठे भृंग
सुनायें छंद।
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दलाली खुली
राजनीति की कुर्सी
पृथ्वी-सी हिली।
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दु:खी हो गात
अमावस-सी लगे
चॉंदनी रात।
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सबको पता
पीले पात-से अब
हैं मेरे पिता।
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है तीव्र ज्वाला
फिर किसने रवि
सांचे में ढाला।
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नाम है गुलाब
कांटा बन जिए
वे तो जनाव।
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रंभती रही
कसाइयों के घर
गाय-सी बहू।
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काटा जो नींम
वृक्ष नहीं बाबरे
मारा हकीम।
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पेड़ है कटा
रो रही लिपट के
तन से लता।
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दुष्टों के साथ
कमल की तरह
मैं रहा साफ।
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जब भी मिले
स्वार्थ की कीचड़ में
सने ही मिले।
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कर लो शोध
स्वर्ग से बढ़कर
है,मॉं की गोद।
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नैनों ने कहा
पिताजी ने समझा
मॉं तो चुप थी।
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सोचें सिलायें
अहल्या-सी तरेंगीं
राम तो आयें।
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थरथराया
रेल के पुल जैसा
कई बार मैं।
***


अति का सब्र
लाश लिए गोदी में
बैठी हैं कब्र।
***

हर युद्ध में
जीते कोई भी पक्ष
हारे इंसान।
***

-सन्तोष कुमार सिंह